।।   श्री हरिः ।।

previous article - हमें भगवान को क्या देना चाहिए ?  WHAT SHOULD WE OFFER TO GOD ?

This article tells us, what God gives us, once we have given him what is required.

                    भगवान् हमें क्या देते  हैं  ?

             What God Gives us in return?

                                                                                              ---प्रेमाचार्य शास्त्री   शास्त्रार्थ पंचानन


                  वैसे तो जो कुछ भी हमारे पास है , वह सब हमारे कर्मफलानुसार भगवान् ने ही हमें प्रदान किया है । परन्तु यहां प्रस्तुत प्रकरण में विशेष तया यह ज्ञातव्य है कि भगवान् के संकेतानुसार जो भावुक भक्त अपना मन और बुद्धि दोनों उन्हें समर्पित कर देता है, उस भक्तप्रवर  को भगवान् की ओर से क्या विशेष उपहार मिलता है ?

                   शास्त्रों में  यत्र तत्र विकीर्ण भगवद् वचनों का स्वारस्य आदरणीय वैष्णव आचार्यों ने कृपा पूर्वक  प्रकट किया है । तदनुसार परम दयालु भगवान् विचार करते हैं कि भौतिक एषणाओं में अहर्निश संलग्न अपने मन तथा बुद्धि को  जिसने मुझे समर्पित करने का अदम्य साहस दिखाया है उसे सर्व प्रथम यह दृढ़ आश्वासन देना चाहिये कि अब तू मेरा है , तुझमें और मुझमें अब कोई भेद शेष नहीं है  , तेरी सब आवश्यकताओं को पूरा करके तुझे सर्वथा निश्चिन्त कर देना अब मेरा उत्तरदायित्व है ।

यह सामान्य दिलासा मात्र नहीं है, अपितु प्रतिज्ञा पूर्वक वचनबद्धता है । यह मनोरम प्रकरण श्रीमद्भगवतगीता में भगवान् श्री कृष्ण के निम्नांकित वचनों में देखिये --

                                     मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं  निवेशय ।                              
                                             निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः  ( १२।८ )

                     यहां " आधान "  और " निवेश "  शब्द विशेषतः मननीय हैं । भूमि में बीज का आधान किया जाता है  तो उसके पुष्पित एवं फलित होने की संभावना सुनिश्चित हो जाती है । इसी प्रकार भगवान् श्री कृष्ण में मन का आधान कर दिया जाए तो उसके चमत्कारिक विलक्षण प्रति फलन हो सकते हैं । ऐसा ही अभिप्राय " निवेश "
से भी है । जैसे कोई व्यक्ति अपनी पूंजी को दुगुनी चोगुनी बढ़ाने की इच्छा से किसी प्रामाणिक संस्थान में उसका निवेश करता है , ठीक उसी प्रकार अपनी बुद्धि का निवेश यदि कोई  श्री कृष्ण में कर देता है तो, उसकी उस सामान्य सांसारिक बुद्धि को  श्रीकृष्ण ,....ददामि  बुद्धियोगं तम् ...( गीता - १०।१० )  अपने इस वचनानुसार बुद्धि योग, अर्थात् - भगवान् के साथ निरन्तर तादात्म्य बनाए रखने वाली बुद्धि, बना देते हैं.

                 अनन्यता का संबन्ध स्थिर हो जाने पर , समर्पित भक्त को  योग एवं क्षेम की   चिन्ता से सर्वथा मुक्त कर देने वाला यह दिव्य आश्वासन देखिये --

                                   अनन्या श्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
                                           तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्  ।।  
                      
               अर्थात्-- अनन्य भाव से मेरा चिंतन करने वाले और मेरी सब प्रकार से उपासना करने , वाले अपने नित्य सेवा में तत्पर भक्तों के योग एवं क्षेम का सम्पूर्ण उत्तर दायित्व मैं वहन करता हूँ ।  (योग- जो वस्तु हमारे पास न हो,  वह हमें मिल जाए और क्षेम- वह वस्तु हमारे पास रहे तथा हमारे उपयोग में आए  । ) और,  अर्जुन के बहाने से,परम कृपालु  दीन वत्सल भगवान् श्रीकृष्ण का अपने सभी प्रिय भक्तों से अपनी अभिन्नता प्रकट करनेवाला यह दिव्य प्रतिज्ञा वचन --

                                  मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
                                          मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियो$सि मे ।।

                 अर्थात्-- अपना मन मुझे समर्पित करके , अपने समस्त सत्कर्म  मुझे  सौंप
देने वाले मेरे भक्त , हे अर्जुन ! तुम्हारी तरह मेरे प्रिय हैं और मैं प्रतिज्ञा पूर्वक कहता हूँ कि वे मुझसे अभिन्न होजाते हैँ ।


                                             
                    
                                         
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