हमें भगवान को क्या देना चाहिए ?
WHAT SHOULD WE OFFER TO GOD ?
---प्रेमाचार्य शास्त्री शास्त्रार्थ पंचानन
आनन्दातिरेक से गद् गद् अन्तःकरण में अपने प्रिय को उपहार स्वरूप * कुछ न कुछ * देने की भावना प्रबल रूप से उद्वेलित होने लगती है जो नितांत स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया है । प्रिय को दीयमान वह * कुछ न कुछ * सामान्य नहीं , विशिष्ट ही होना चाहिए । इस ऊहापोह में व्यग्र चित्त अपने परिवेश को और स्वयं अपने आप को टटोलना प्रारम्भ कर देता है । इसे सभी भुक्तभोगी खूब जानते पहचानते हैं । इस व्यग्रता पूर्वक आत्म मन्थन में जो रस है वह गूंगे के गुड़ की तरह सर्वथा अवर्णनीय है ।
आत्म निरीक्षण करने पर पता चलता है कि यहां तो मेरा कुछ भी नहीं है ।सब कुछ उसीका दिया हुआ ही तो है। .... मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर....यह सन्त वचन यथार्थ बन कर सामने प्रकट हो जाता है । इन विवशता भरे क्षणों में ही --सर्वस्वात्मनिवेदन --फलित होता है जो शरणागति मार्ग की सर्वोच्च मनःस्थिति मानी गई है । इस प्रकरण में निम्न श्लोक कितना रोमांचित कर देने वाला है ---
रत्नाकर स्तव गृहं गृहणी च पद्मा
किं देय मस्ति भवते जगदीश्वराय ।
राधागृहीतमनसे $ मनसे च तुभ्यम्
दत्तं मया निजमन स्तदिदं गृहाण ।।
अर्थात्-- हे भगवन् ! आपका घर समुद्र ,रत्नों की खान होने के कारण रत्नाकर कहा जाता है , साक्षात् महालक्ष्मी आपकी धर्मपत्नी हैं और अनन्त ब्रह्माण्डों के एक मात्र स्वामी होने के कारण आपको जगदीश कहा जाता है । ऐसी स्थिति में मैं अकिंचन आपको क्या दे सकता हूँ ? आपका मन ,राधा रानी जैसे पूर्णतः समर्पित भक्तों के पास रहता है, सो आप बिना मन वाले हो गये हैं अतः मैं अपना मन ही आपको प्रदान करता हूँ । कृपा करके। इसे स्वीकार कर लीजिये ।
मैंने अपना मन दिया... यहां मन शब्द से वह मन अभिप्रेत नहीं है जो सुख दुःख का अनुभव करता है और ग्यारहवीं इन्द्रिय के रूप में जाना जाता है , अपितु ऊपर कहे गये सर्वस्वात्मनिवेदन का प्रतिनिधित्व करता है । वहां जो स्व है वह यहां मन है ।
स्व अर्थात् स्वभाव , जो हमारी पहचान है अथवा जिसके कारण हम एक सबसे पृथक् इकाई के रूप में जाने जाते हैं । वह गुण या अवगुण जो हम में रच पच गया है हमारे में बद्धमूल हो गया है । हमारा स्वभाव कहलाता है । जैसे दयालु होना, उदार होना , निश्छल होना, धीर वीर गम्भीर होना अथवा कामी, क्रोधी, लोभी, कंजूस मक्खी चूस, डरपोक आदि होना । इन सभी मनोभावों को भी दे देना ही , सर्वोच्च समर्पण है । पूजा, अर्चना ,जप ,पाठ प्रार्थना , साष्टाङ्ग प्रणाम आरती प्रसाद आदि सब नियमित चल रहा है और आप क्रोधी, लोभी , कृपण आदि भी पहले की तरह ज्यों के त्यों हैं तो मन अभी पूरी तरह नहीँ दिया गया है । तब आत्मनिरीक्षण करना आवश्यक हो जाता है ।
देने का , सर्वोच्च समर्पण का उत्कृष्ट उदाहरण दैत्यराज बलि ने प्रस्तुत किया है । यह प्रसंग भावुकों के लिये मननीय है --
यद्युत्तमश्लोक ! भवान् ममेरितं
वचो व्यलीकं सुरवर्य ! मन्यते ।
करोम्य्रृतं तन्न भवेत्प्रलम्भनम्
पदं तृतीयं कुरु शीर्ष्णि मे निजम् ||
अर्थात् - हे उत्तमश्लोक ! भगवन् ! तीन कदम भूमि देने का मैंने आपको संकल्प पूर्वक वचन दिया था । परन्तु आपने दो चरणों में ही ऊपर नीचे सब कुछ नाप लिया है । अब तीसरे चरण के रखने योग्य स्थान न होने से आप मुझे मिथ्याभाषी कह रहे हैं । तो, प्रभु ! मैं अभी अपने को सच्चा सिद्ध कर रहा हूं । आप अपना तीसरा चरण यहाँ , मेरे सिर पर रखिये । और राजा बलि हाथ जोड़ कर अपना सिर त्रिविक्रम भगवान् के सामने झुका देता है । फिर करुणावरुणालय भगवान् उसके सिर पर अपना मंगलमय चरणारविन्द रख कर उसे धन्य कर देते हैं । उस समय परम प्रसन्न भगवान् त्रिविक्रम की लोकोत्तर मुस्कान से दिग्दिगन्त मानो उज्वल ज्योत्स्ना से आलोकित हो उठा था । उस दुर्लभ क्षण की कल्पना ही हमें कितना आनन्दातिरेक से रोमांचित कर देती है ? फिर , वह अपूर्व घटित हुआ । भगवत्पादस्पर्श से बलि द्वन्द्वातीत होकर अखण्ड आनन्द में सुप्रतिष्ठित होगया ।
गीता में भगवद् वचन भी यही है--
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्..।
श्री वैष्णवाचार्यों का यही सर्वसम्मत मत है कि जब द्वन्द्व नहीं होते हैं तब एकमात्र आनन्द ही आनन्द रहता है ।
इस प्रकार जब भावुक भक्त अपने मन, बुद्धि, प्राण ही नहीँ , अपने स्वभाव तक को समर्पित करके शरणागति की पांचवी स्थिति " आत्मनिक्षेप " को प्राप्त कर लेता है, तब उसके अन्तरंग प्रियतम भगवान , उसे बदले में क्या सौगात देते हैं ? यह रोचक प्रकरण अगले लेख में...
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