संस्कृति और स्वेच्छाचार
---प्रेमाचार्य शास्त्री शास्त्रार्थ पंचानन
वेदादि शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट आचार विचारों का ही समष्टि नाम भारतीय संस्कृति है । हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ? इस दुविधा का निराकरण हम अपने शास्त्रों द्वारा ही करते आए हैं, आगे भी करते रहें यही हमारे लिये श्रेयस्कर भी है । गीता शास्त्र में भगवान् श्री कृष्ण का निम्नांकित वचन सदा हमारा प्रेरणा स्रोत रहा है --
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तु मिहार्हसि ।।
अर्थात् - क्या करना उचित है अथवा क्या अनुचित है ? इसे व्यवस्थित रूप से जानने के लिये शास्त्र को ही प्रमाण मानना चाहिए । क्योंकि शास्त्र विहित कर्म करना ही हमारे लिये उचित है ।
इस सुस्पष्ट शास्त्रीय निर्देश के बाद भी यदि हम स्वेच्छाचारी होकर अपने सांस्कृतिक मूल्यों कीअवहेलना करते हैं अथवा उन्हें मनमाने ढंग से विकृत करते हैं , तो यह दुष्प्रवृत्ति नितान्त चिंता जनक है । आधुनिकता के व्यामोह में पड़ कर धर्म और संस्कृति को प्रगति में बाधक मानते हुए उनसे पिण्ड छुड़ा कर उच्छृंखल होने का जो दूषित वातावरण आजकल बनता जा रहा है ,उससे सनातन धर्मानुयायी हिन्दू समाज भी प्रभावित होने लगा है । अपने पूजनीय देवी देवताओं , अवतारों किं वा महापुरुषों को बाजारू वस्तुओं के विज्ञापनके रूप में प्रयोग करना एक सामान्य बात मान ली गई है ।
जिसके परिणाम स्वरूप गोपाल जर्दा , तुलसी जर्दा , हनुमान् बम , नारद छाप तम्बाकू आदि न जाने कितने प्रोडक्ट धडल्ले से बाजार में बिक रहे हैं । प्रयोग के बाद उन पर लगे चित्र कचरे के डिब्बों में अथवा लोगों के पांवों में ठोकरें खाते हैं ।
यह कुचक्र यहीं नहीं रुका है । अब वेदबीज ओंकार और सुप्रसिद्ध गायत्री मन्त्र के दुरुपयोग का दौर प्रारम्भ हुआ है । ओंकार एवं गायत्री मन्त्र की महत्ता से कौन सनातन धर्मानुयायी होगा जो सुपरिचित न होगा ? परन्तु जानते हुए भी अधिकांश शास्त्रीय व्यवस्था की ओर से आंखें मूंद कर मनमाने आचरण में प्रवृत्त होते जा रहे हैं ।
बृहन्नारदीयोपनिषद् में " ओम् " के अ , उ , म् -- इन तीन अक्षरों को क्रमशः ब्रह्मा , विष्णु और शिव का रूप माना गया है । गीता में इसे एकाक्षर ब्रह्म कहा गया है --- ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म । और यह बाह्यान्तर शुद्धि के अनन्तर ध्यान करने से आध्यात्मिक ऊर्जा का अक्षय स्रोत बनजाता है । जैसाकि कहा भी गया है --- ओंकारं बिन्दु संयुक्तं नित्यंध्यायन्ति योगिनः । इस विवेचन से स्पष्ट है कि ओंकार ध्यान की स्तु है , न कि सामूहिक रूप से जहाँ तहां उच्चारण करने या करवाने की । आज कल ओंकार के सामूहिक उच्चारण का रोग अपने चरम पर है ।
वर्तमान समय में सर्वाधिक दुर्दशा गायत्रीमंत्र की हो रही है । हारमोनियम , तबला , ढोलक ,मंजीरा, चिमटे आदि के साथ गा गा कर इसे ग्राम्यगीत जैसा बना दिया गया है । इतना ही नहीं , कैसेट और मोबाइल की रिंग टोन के रूप में धडल्ले से दुरुपयोग किया जा रहा है । शोक सभाओं का समापन भी इसी मन्त्र के सामूहिक उच्चारण से करने की परम्परा सार्वत्रिक हो गई है ।
गायत्री मन्त्र के साथ किया जाने वाला यह अभद्रतापूर्ण व्यवहार निन्दनीय इसलिये हो गया है क्योंकि ऐसा करना शास्त्र सम्मत नहीं है । शास्त्रों में गायत्री मन्त्र के जप करने की महत्ता तो विस्तारपूर्वक प्रतिपादित की गई है परन्तु उसका वाद्ययंत्रों द्वारा सार्वजिनक गायन भी किया जा सकता है , ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता है ।
गायत्री मन्त्र के माध्यम से सविता देवता के जिस भर्ग ( तेज ) का हम अपने में आधान करना चाहते हैं वह हमें बाह्यान्तर शुद्धि पूर्वक, संकल्पादि करके अंगन्यास करन्यास ए्वं विनियोग पूर्वक जप करने से ही प्राप्त हो सकता है , अन्यथा नहीं । इस संदर्भ में स्मृतियों के निम्नांकित वचन मननीय हैं --
गायत्रीं यो जपेन्नित्यं न स पापेन लिप्यते। ( संवर्त स्मृति -- २१३ )
अर्थात् -- जो नित्य गायत्री को जपता है , वह पाप से लिप्त नहीं होता ।
न सावित्र्या समं जप्यं न व्याहृतिसमं हुतम् । ( शंखस्मृति -- ,१२। ३ )
अर्थात् -- सावित्री जप के समान कोई जप नहीं है और व्याहृतियों द्वारा किये गये हवन के समान कोई हवन नहीं है ।
स्वेच्छाचार संस्कृति के स्वरूप को शनैः शनैः विकृत कर देता है । अतः सभी आस्तिक महानुभावों का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे अपने आचरण में शास्त्रानुमोदित कर्मों को ही प्रश्रय देवें । दृढ़ता पूर्वक स्वेच्छाचार से बचने का प्रयास करें ।
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