।। श्री हरिः ।।
गर्व से कहिये हम हिन्दू हैं.... क्यों ?
Why Hinduism is our pride, Why Hindu?
--- प्रेमाचार्य शास्त्री शास्त्रार्थ पञ्चानन
हिन्दू कह कर गर्व अनुभव करने और स्वयं को गौरवान्वित मानने के यद्यपि अनेक कारण हैं ,जिनका हम आगे विस्तार पूर्वक विवरण प्रस्तुत करेंगें , तथापि विश्व में मानव सभ्यता का सर्व प्रथम सूत्रपात करनेवाली हिन्दू जाति के हम अभिन्न अंग हैं ,यह जान लेना ही क्या पर्याप्त कारण नहीं है ?
आज चाहे हमारी स्थिति जैसी भी है किन्तु एक समय ऐसा भी था जब हम विश्व भर की सभ्यता एवं संस्कृति के जन्मदाता के रूप में सुप्रतिष्ठित थे । विश्व का सांस्कृतिक नेतृत्व हमारे ही हाथों में था । आइये , आत्म गौरव से भरे अपने उस स्वर्णिम काल की एक झलक देखें ।
हमारे पास ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण लोक कल्याण कारी साहित्य का विपुल भण्डार है । अठारह पुराण , एक सौ आठ उपनिषद् , छः दर्शन , अनेक स्मृतियाँ , आरण्यक , गृह्यसूत्र , रामायण , महाभारत , संस्कृत भाषा के अगणित महाकाव्य हैं जो सभी की आध्यात्मिक किंवा आधिभौतिक जिज्ञासाओं को शान्त करने मे पूरी तरह सक्षम हैं । इनमें भी सर्वोपरि स्थान वेदों और वेदांगों का है , क्योंकि पूर्व एवं पश्चिम के समस्त विद्वान् इस बात में सम्पूर्ण रूप से सहमत हैं कि ऋग्वेद विश्व सभ्यता का प्रचीनतम ग्रन्थ है । इससे प्राचीन किसी अन्य ग्रन्थ का इतिहास वेत्ताओं को कोई अतापता नहींं है , जैसाकि उल्लेख भी मिलता है --
The Rigvedas are the hindu sacred writings which are probably the oldest literory compositions in the world .
( Wall's " Sex and Se worship " Page - 8 )
इसी सर्व सम्मत मान्यता के आधार पर यह निर्भ्रांत तथ्य भी स्वीकृत हुआ है कि ऋग्वेद के बाद पनपने वाली विश्व सभ्यताएं वेद मूलक हैं । अर्थात् - प्रत्येक देश की प्राचीन संस्कृति , सामाजिक व्यवस्था, रीति रिवाज, धार्मिक कृत्य, कला साहित्य आदि में कुछ बातें ऐसी मिलती हैं , जो भारतीय जान पड़ती हैं । और प्रायः सभी प्राचीन धर्मग्रन्थों, दर्शन शास्त्रों में यत्र तत्र प्राचीन भारतीय सिद्धांत बिखरे हुए से जो उपलब्ध होते हैं , उसका एक मात्र कारण यही है कि उन पर वैदिक सिद्धांतों का अमिट प्रभाव है ।
विभिन्न देशों की संस्कृतियों में भारतीय वैदिक संस्कृति का समावेश कैसे हुआ होगा ? इस जिज्ञासा का समाधान अब कठिन नहीं रह गया है, क्योंकि इस तथ्य के पोषक पुष्कल प्रमाण अब उपलब्ध हैं ।
पुराणों में जो सृष्टि क्रम दिया गया है उससे यही सिद्ध होता है कि प्रथम मानव सृष्टि भारत में हुई और उसका विस्तार समस्त संसार में हुआ । प्रारम्भ में संकल्प सृष्टि हुई, तदनन्तर मनु शतरूपा द्वारा मैथुन धर्म से प्रजा वृद्धि का कार्य सम्पन्न होने लगा । राजर्षि मनु की वंश परम्परा में होने वाले महाराजा पृथु से पूर्व इस भू मण्डल पर कहीं भी नगर ग्राम आदि की कल्पना नहीं थी । पिता के समान प्रजा को जीविका प्रदान करनेवाले महाराज पृथु ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर जहां तहां ग्राम, पुर, नगर, दुर्ग, वीरों के आवास योग्य स्थान ,पशु शालाएं, सैन्य आवास, खानें, किसानों के गांव तथा पर्वतों की तलहटी में बस्तियां बनाकर सभी को यथायोग्य स्थान प्रदान किया --
अथास्मिन् भगवान् वैन्यः प्रजानां वृत्तिदः पिता ।
निवासान् कल्पयांचक्रे तत्र तत्र यथार्हतः ।।
ग्रामान् पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च ।
घोषान् ब्रजान् सशिविरान् आकरान् खेट खर्वटान् ।।
( श्रीमद्भागवत - ४ ।१८। ३० - ३१ )
इस तरह भारत से ही मानव सृष्टि का विकास विभिन्न भू भागों में हुआ । भारतवर्ष में भी ब्रह्मावर्त प्रदेश को , जिसे आजकल कुरुक्षेत्र नाम से जाना जाता है , मानव सृष्टि का आरम्भ स्थल माना गया है । यह प्रदेश देवभूमि होने के कारण आध्यात्मिक विकास के केन्द्र के रूप में विख्यात है । जिन जिन भू भागों पर यहां से गये हिन्दू आबाद होते गये वहां उनके साथ वैदिक संस्कृति भी पहुंची ।
कालान्तर में भिन्न भिन्न प्रदेशों की जलवायु की भिन्नता के कारण वहां जा कर बसने वाले भारतीयों की आकृति और शारीरिक वर्ण में भी भिन्नता आ गई । इतना ही नहीं , जल वायु के विभेद के कारण उनके आचार विचार भी प्रभावित हुए । ऊपर से , आने जाने की असुविधा के कारण अनेक देशों का भारत और वैदिक संस्कृति से सम्पर्क पोषण बन्द हो गया तथा रूप रंग और रहन सहन में इतना परिवर्तन हो गया कि वहां के प्रवासी भारतीय भारत में विदेशी किंवा भिन्न जाति के प्रतीत होने लगे । शरीर के किसी अंग को हृदय से शुद्ध रक्त न मिलने से उस अंग में विकार आ जाना स्वाभाविक ही होता है । विकार ग्रस्त समाज में जाति सांकर्य, आचार विचार सांकर्य , भाषा सांकर्य जैसे महादोष प्रकट होने लगे । रही सही कमी पूरी कर डाली अनुलोम प्रतिलोम विवाहों ने , जिन्होंने विकार के स्तर को चरम पर पहुंचा दिया ।
क्रियालोप हो जाने के फल स्वरूप अनेक बाह्य जातियों का उद्भव हुआ । मनुस्मृति के अनुसार पौण्ड्र - चौण्ड्र , द्रविड़ कम्बोज ,यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात,दरद, खश इन देशों में निवास करनेवाले क्षत्रिय वैदिक संस्कृति के जानकार ब्राह्मणों के दर्शन का अभाव होने से म्लेच्छ प्राय हो गये --
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गताः लोके ब्राह्मणानादर्शनेन च ।।
पौण्ड्रका श्चौण्ड्द्रविड़़ाः कम्बोजाः यवनाः शकाः ।
पारदाः पल्हवा श्चीनाः किराताः दरदाः खशाः ।।
मुखबाहु रुपज्जानां या लोके जातयो बहिः ।
म्लेच्छवाच श्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः ।।
उक्त विश्लेषण का निष्कर्ष यही है कि भारतवर्ष विश्व सभ्यता का केन्द्र है, हृदय है । पृथ्वी के किसी कोने में रहने वाले मानव समाज को यदि अपने आध्यात्मिक अथवा चारित्रिक अभ्युत्थान की शिक्षा प्राप्त करनी हो तो उसे भारतीय तत्ववेत्ता विद्वानों से संपर्क करना चाहिए , मनु का यह वचन हमारे वास्तविक स्वरूप का सटीक परिचय देता है --
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।
( ......शेष आगे जारी है....) ( ....To be continued.... )
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I am Hindu and I am proud to belong to a religion which taught meaning of humanity to world, it taught the language of lov and peace, thats why only Hinduism.
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